ऐ ग़ालिब बहुत आए होंगे तेरी महफिल में टूटे हुए दिल के मेहमान। आशिकी के शेर भी तूने खूब सुनाएं होंगे। तूने अपनी शायरी से टूटे हुए दिल भी बहलाये होंगे। पर आज एक किस्सा मैं भी बयां करता हूं। ग़ालिब अपने टूटे हुए दिल का एक हिस्सा मैं भी बयां करता हूँ। मैं इश्क के जिन कांटों की राह से अब तक चलता था संभल के। आज उन कांटों की राह में जाने क्यों खुद को फना करता हूं। ऐ ग़ालिब इस मोहब्बत की दुनिया से मैं अब हमेशा के लिए तौबा करता हूं। अब तो हर रात मैं बस मैंखानों में ही जगा करता हूं। अब हर सुबह बस पीने की दुआ करता हूं। बस अब तो मैं इस तरह ही जिया करता हूं। रोज़ ज़हर-ए आशिकी पिया करता हूं अब तो ऐ ग़ालिब मैं भी तेरे शेर सुनकर ही जिया करताहूं
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