मैं अपना हर ग़म क़लम की स्याही को दे दूं

मैं अपनी हर गम ए दास्तां ख़ामोशी से कह दूं ये जरूरी तो नहीं!
मैं उसके अल्फाज़ों को भी अपनी ही आवाज़ दे दूं ये ज़रुरी तो नहीं!
उसकी दास्ताने ग़म के सिवा और भी गम है ज़िंदगी में!
मैं अपना हर ग़म क़लम की स्याही को दे दूं ये ज़रूरी तो नहीं!
मैं बिखरे हुए अल्फाज़ों को कागज़ पे समेटू और  वो कागज़ किसी और को दे दूं ये ज़रुरी तो नहीं!
मैं अपनी शायरी में ज़िक्र करूं जिसका मैं अपनी दुआओं में फिक्र करूं जिसकी और उसका नाम जमाने के सामने ले दूं ये ज़रूरी तो नहीं!
मैं अपना हर ग़म क़लम की स्याही को दे दूं ये ज़रूरी तो नहीं!

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