ता उम्र हम जीने की जद्दोजहद

ता उम्र हम जीने की जद्दोजहद करते रहे, जिंदगी हमसे हम जिंदगी से लड़ते रहे।
उम्मीदों की गागर भर्ती रही झलकती रही।
जिंदगी कतरा कतरा कर गुजरती रही।
ख्वाहिशें बनती रही बिगड़ती रही।
सपने आंखों में चढ़ते रहे उतरते रहे।
हम जिंदगी जीने की ख्वाहिश से आगे बढ़ते रहे। मुश्किलें हर मोड़ पर हमारे कदम पकड़ती रही।
कभी वो हमसे कभी हम उस से लड़ते रहे।
जिंदगी में खुशियों के पड़ाव भी आए, गम के ठहराव भी आए।
लेकिन हमारे कदम किसी मोड़ पर ना डगमगाए।
हम जिंदगी की जद्दोजहद से कभी ना घबराए।
अगर हम हारे तो मौत से हारे, जिंदगी हमें कहां हरा पाई।
हालांकि जिंदगी जीने की जद्दोजहद में मौत की फिक्र भी हमें कभी कहां सता पाई।
वो बात और है कि जिंदगी की जद्दोजहद करते करते,
जिंदगी हमें अपने आखिरी पड़ाव पर ले ही आई।
मौत की गोद में सुला कर खामोशी की लोरी सुना कर, जिंदगी चुपके से जुदा हो गई।               
मौत बनी महबूबा, जिंदगी बेवफ़ा हो गई।
(सुमन वशिष्ट भारद्वाज)

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